जब द्रोणाचार्य
अपने पुत्र अश्वथामा को दूध के लिए रोते देखकर द्रवित हो उठे, उन्हे महसूस
हुआ कि गरीबी क्या होती है। उन्हे राजा द्रुपद की याद आई। राजा द्रुपद उनके
सहपाठी रह चुके थे। उन्होंने सोचा यदि राजा द्रुपद से मिला जाये और उन्हे
अपनी स्थिति बताई जाये, शायद उनकी गरीबी किसी हद तक दूर हो जाये। वह राजा
द्रुपद के पास गए, उन्हे अपनी स्थिति बताई और अपने समय की याद दिलाई कि
दोनों सहपाठी रह चुके हैं। राजा द्रुपद पर घमण्ड सवार हो गया, बोले कि
ब्राह्मण होने के नाते कुछ भिक्षा दी जा सकती है लेकिन मित्रता का बहाना मत
लो। मित्रता बराबरी पर ही चल सकती है। राजा द्रुपद के शब्दों को सुनकर
द्रोणाचार्य आहत होकर यह संकल्प किया कि राजा द्रुपद का घमण्ड तोड़ा जाये,
इसलिए खाली हाथ वापिस चले गए। वहां से द्रोणाचार्य हस्तिनापुर गए। उन्हे
कौरव और पांडवों को शस्त्र विद्या सिखाने के लिए नियुक्त कर लिया गया।
उन्होने राजकुमारों को सभी शस्त्र चलाने की शिक्षा दी, जब गुरु दक्षिणा का
समय आया तब द्रोणाचार्य ने उन्हे राजा द्रुपद के राज्य पर हमला करने की
आज्ञा दे दी। राजकुमारों ने द्रोणाचार्य के सामने जब राजा द्रुपद को बंदी
के रूप में प्रस्तुत किया, तब द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद से पूछा, 'हे
राजन! क्या अब तो मित्रता हो सकती है?' राजा द्रुपद को पुरानी बात याद आ
गयी और उन्होने अपनी गलती स्वीकार कर ली। इस लिए कभी घमंड नहीं करना
चाहिए।