स्वस्थ न्याय प्रणाली का होना सामाजिक उन्नति के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि शरीर के रखरखाव के लिए उचित भोज्य सामग्री। लोकतंत्र में देश की जनता का विश्वास बनाये रखने के लिए यह अनिवार्य है कि संपूर्ण न्याय प्रक्रिया में शीघ्रता ही नहीं वरन् पारदर्शिता भी जरुरी है और पारदर्शिता बनाये रखने के लिए न्याय-अधिकारियों का चयन भी पारदर्शी होना चाहिए। आपसी जवाबदेही और जिम्मेदारी को न्यायपालिका ने समय-समय पर बखूबी निभाया है। इसकी निष्ठा संदेह से परे है लेकिन अगर कभी उसकी मंशा और पारदर्शिता पर सवाल खड़े होते हैं तो उसे दूर करने की जिम्मेदारी भी न्यायपालिका की ही है। यह देश की 125 करोड़ आबादी की आस्था और भरोसे का केन्द्र है, इसलिए न्यायपालिका में नियुक्तियों के मसले को न्यायपालिका का आंतरिक मामला बता देना पारदर्शिता से मुंह मोड़ना है।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर िदया है जिसमें न्याय-अधिकारियों के चयन मे पारदर्शिता परिलक्षित न होने के कारण पिछले साल संसद ने जजों द्वारा जजों की नियुक्ति करने वाली कोलेजियम प्रणाली की जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पारित किया गया था। अधिनियम की मंशा यह थी कि न्यायपालिका में नियुक्ति प्रणाली को और पारदर्शी किया जाये। लिहाजा सरकार और समाज को भी इस नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल करते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान किया गया। कार्यपालिका के इस कदम को न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता पर अतिक्रमण मानते हुए हाल ही में एनजेएसी अधिनियम अंसवैधानिक करार िदया है और जजों द्वारा ही जजों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम प्रणाली के फिर से लागू होते ही नियुक्तियों में पारदर्शिता का प्रश्न फिर खड़ा हो गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि खुद न्यायपालिका को भी कॉलेजियम प्रणाली के पुख्ता होने पर पूरा भरोसा नहीं है। इसकी खामियों का कहीं न कहीं न्यायपालिका को भी आभास है। न्यायपालिका के इतिहास में यह पहली बार हुआ है और इसीलिए इसने अपनी इस कमी को दूर करने के लिए कार्यपालिका से सुझाव मांगे हैं। इस के तहत आगामी 3 नवम्बर को कॉलेजियम प्रणाली को संशोधित करने के लिए सरकार अपने सुझाव प्रस्तुत करेगी।
देश का हर नागरिक जानता है कि सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायिक व्यवस्था ही समाज में भरोसा कायम कर सकती है। और स्वतंत्र और सक्षम न्यायिक व्यवस्था एक न्यायपालिका तब ही सुनिश्चित कर सकती है जब वह स्वयं पारदर्शी हो। पारदर्शिता के लिए न्यायपालिका को न्यायधीशों की नियुक्ति प्रणाली में कार्यपालिका और समाज की सहभागिता को अतिक्रमण न मानकर खुले िदल से स्वीकार करना चाहिए। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक 2013 के अनुसार भारत में 45 प्रतिशत राय देने वालों की नज़र में भारतीय न्यायपालिका भ्रष्ट है।
मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली में सबसे बड़ा दोष है कि यह गोपनीयता के अंधेरे में काम करती है। ऐसे देश में पारदर्शिता के लिए जहां न्यायपालिका स्वयं सक्रिय हो वहां न्यायधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता के स्थान पर गोपनीयता बनाये रखने के लिए आग्रही होना समझ से परे ही नहीं लगता बल्कि संशय पैदा करता है।
हमारे देश में न्यायपालिका को बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है। भारतीय न्यायपालिका जनअधिकारों की पहरेदार बनाया गया है। इसलिए जनहित के खिलाफ जनप्रतिनिधियों के बनाए किसी भी कानून पर वह अविलम्ब लगाए रोक लगाने में भी सक्षम है। न्याय की आस लगाये देश के आम नागरिक को जब अन्य स्थानों से दुत्कार िदया जाता है तो न्याय हेतु वह अदालत की ओर ही रुख करता है। जनहित के पहरेदार के रुप में कार्य करने वाले न्यायाधीशों को न्यायपालिका के सीमित दायरे में ही बंधे रह कर कार्य करना न्याय की निश्पक्षता के लिए अनुचित प्रतीत होता है।
1993 में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानानंरण का अधिकार यह मानते हुए अपने हाथ में ले लिया था कि न्यायाधीश न्यायिक परिवार के सदस्य होते हैं। ऐसा हो जाने के बावजूद न तो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कम हुआ और न ही न्यायिक प्रक्रिया में शीघ्र निस्तारण के प्रति कोई ललक ही उत्पन्न हुयी। अब देश इस स्थिति को और ज्यादा देर तक मानने के लिए उत्सुक नहीं है। इसलिए कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता लानी होगी। अमरीका में न्यायाधीश नामित करने के साथ ही उसका नाम प्रकाशित कर िदया जाता है और सीनेट की न्यायिक समिति देश के हर आम और खास व्यक्ति से उस व्यक्ति के बारे में जानकारी एवं राय मांगती है और तय समय पर विचार करके उसकी नियुक्ति पर अंतिम फैसला करती है।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह विशेष तौर पर उल्लिखित किया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे में निहित है। लेकिन क्या यह स्वतंत्रता न्यायधीशों की नियुक्ति की रहस्यमयी प्रणाली तक ही सीमित है? कॉलेजियम प्रणाली मेंन्यायधीशों की नियुक्ति के लिए कोई भी नियमावली घोषित नहीं की गयी है तो न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के गठन से स्वतंत्रता कैसे भंग हो जाती! यह प्रयास तो स्वछंदता को नियमित करने के लिए था जो न्यायपालिका को स्वीकार नहीं है और इस प्रकार न्यायपालिका का अपने पर जनमत का भरोसा कम करने का प्रयास है। संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में यह स्पष्ट किया गया है कि जजों की नियुक्ति यिद राष्ट्रपति जरुरी समझे ंतो उच्चतम न्यायालय के जजों और राज्यों के हाईकोर्ट के जजों की सलाह पर की जायेगी। संविधान में कहीं भी कॉलेजियम प्रणाली का जिक्र नहीं किया गया है। कॉलेजियम का गठन उच्चतम न्यायालय ने क्या अपने हितों का को साधने के लिए संविधान की व्यवस्थाओं से इतर नहीं किया गया?
कॉलेजियम प्रणाली में सुधारों के लिये सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि यह न्यायधीशों की जवाबदेही कैसे स्थापित हो। न्यायधीशों की छोटी-मोटी गल्तियों का कोई संज्ञान ही नहीं लिया जाता और न ही दंडित किया जाता है। दूसरी तरफ, महाभियोग की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अभी तक किसी न्यायाधीश पर संभव ही नहीं हो पाया है। यिद कोई आवाज उठाने की कोशिश करता है उस पर अवमानना का ईस्तेमाल किया जाता है। आम आदमी इस बात से हतप्रभ है कि जिस अपराध के आरोप पर एक सामान्य व्यक्ति को जेल में एक लम्बे अर्से के लिए रहना पड़ जाता है उसे जमानत भी आसानी से नहीं मिलती है, उसी तरह के मामले में न्यायमूर्ति सौमित्रसेन जैसे लोग केवल इस्तीफा देकर कैसे बरी हो जाते हैं। किसी न्यायाधीश को सजा क्यों नहीं हो पाती?
स्वस्थ भारत के लिए न्यायपालिका को अपने सुधार के लिए आत्मचिंतन करना होगा और कार्यपालिका के साथ आमजन को उसके द्वार पर शीघ्र न्याय प्रदान करने के लिए पूर्ण पारदर्शिता के साथ कार्य करना होगा, देश के विभिन्न स्थानों पर हाईकोर्टस् एवं सुप्रीम कोर्ट की बैन्चस् की स्थापना करनी होगी अन्यथा संभावित अराजकता के लिए न्यायपालिका ही मुख्य जिम्मेदार ही मानी जायेगी। (इस लेख के मुख्यांश दैनिक जागरण से उदृत हैं।)
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